लेखक: सुधीर जुगरान
“नाद” सृष्टि की उत्पत्ति का, प्रस्फुटित होता आदि योगी शिव के डमरू से। शिव सनातन हिन्दू धर्म के ऐसे देवता है जो अपने में सृजन और संहार दोनों समाहित करे हुए है। साधारण योगी से असाधरण आदियोगी बनने की यात्रा शिव ने संभवतः हिमालय में ही तय की होगी। उत्तराखंड में अनेक ऐसे स्थान है, जहाँ शिव और उनसे सम्बंधित कथाओं का उल्लेख मिलता है। आस्था के प्रतीक बन चुके इन शिवालयों में हर वर्ष लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते है। शिव के विशाल व्यक्तिव और उनकी कठोर साधना से प्रेरित हो कर सन्यासी, योग साधना और ध्यान के लिए भी उत्तराखंड का रुख करते है। उत्तराखंड आज के इस आधुनिक दौर में पुरे विश्व के लिए ध्यान, योग और आध्यत्म के केंद्र के रूप में उभरा है। शिव का गहरा प्रभाव यहाँ के मठों, महंतों और दार्शनिक विचारधारा पर भी पड़ा है। उत्तराखंड प्राचीन काल में दो भागों में विभक्त था, मानसखंड जो की आज कुमाऊं मंडल के नाम जाना जाता है और दूसरा केदारखंड जो आज गढ़वाल मंडल के नाम से विख्यात है। शिव का एक नाम केदार भी है, शिव का प्रिय स्थान होने के कारण ही गढ़वाल मंडल को केदारखंड कहा गया है। उत्तराखंड में भगवान शिव को समर्पित मंदिर उन से जुडी कथाएं कुछ इस प्रकार है।
केदारनाथ: केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा का उल्लेख शिव पुराण में मिलता है। दो भाई नर और नारयण नाम के भगवान शिव की मूर्ति बनाकर उनकी पूजा किया करते थे। दोनों भाईयों की पूजा और सेवा से प्रसन्न होकर शिव प्रकट हुए। भगवान शिव ने दोनों भाइयों से वर मांगने के लिए कहा तो प्रजा के कल्याण कि भावना से इन्होंने शिव से वर मांगा कि वह इस क्षेत्र में सदा के लिए बस जाएं। इनकी प्रार्थना पर भगवान शिव ज्योर्तिलिंग के रूप में इस क्षेत्र में स्थापित हुए। केदारनाथ से जुडी पाण्डवों की कथा भी सुनने को मिलती है। महाभारत के भयंकर युद्ध के बाद पांडव प्रायश्चित करना चाहते थे। पांडवों ने इसका समाधान वेद व्यास जी से पूछा तो उन्होंने कहा केवल शिव ही उनको पाप से मुक्ति प्रदान कर सकते है। शिव पाण्डवों से प्रसन्न नहीं थे, जब पाण्डव काशी पहुंचे तो वहां शिव प्रकट नहीं हुए।
शिव की खोज में जब पांचों पाण्डव केदारनाथ पहुंचे तो शिव ने उन्हें आया देख कर बैल का रूप धारण कर लिया और बैलों के झुंड में सम्मिलित हो गए। शिव को पहचानने के लिए भीम एक गुफा के पास पैर फैलाकर खड़े हो गए। सभी बैल उनके पैर के बीच से होकर निकलने लगे लेकिन बैल बने शिव को भीम के पैर के बीच से जाना स्वीकार नहीं था। इस कारण पाण्डवों ने शिव को पहचान लिया। इसके बाद शिव वहां भूमि में विलीन होने लगे तब बैल बने भगवान शिव की पीठ को भीम ने पकड़ लिया। भगवान पाण्ड़वों के दृढ़ निश्चय और भक्ति को देखकर प्रकट हुए तथा उन्हें पापों से मुक्त कर दिया। जिस स्थान पर भीम ने भगवान शिव की पीठ को पकड़ा वो स्थान केदारनाथ कहलाया। आज भी पाण्डव, द्रौपदी के साथ यहाँ पूजे जाते है और तब से यहाँ शिव के पीठ के भाग की पूजा की की जाती है। बैल बने भगवान् शिव जब भूमि में विलीन हो रहे थे तो उनका बाकी का शरीर चार अन्य जगह और विभक्त हो गया था जो अब चार अन्य भगवान शिव के मंदिर है (रुद्रनाथ, तुंगनाथ, कल्पेश्वर, मध्यमहेश्वर)
रुद्रनाथ: महाभारत के युद्ध के पश्चात जब पांडव भगवन शिव की खोज कर रहे थे तो भगवान् शिव पांडवों से नाराज़ थे और उनसे बचने के लिए, वे भूमि में विलीन होने लगे, तो उन के मुख का भाग रुद्रनाथ में प्रकट हुआ। एक और कथा है की जब सती ने अपने पिता दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में शिव को निमंत्रण न मिलने का समाचार सुना तो आक्रोशित होकर सती ने यज्ञ में कूद कर अपने प्राण दे दिए कहा जाता है, तब भगवान् रुद्रनाथ ने अपने गर्दन तिरछी कर के नारद मुनि से सती का हाल जाना था। शिवजी की मुख मूर्ति रूद्र नाथ में तिरछी ही स्थापित है, आज तक इसकी मूर्ति की गहराई का भी पता नहीं है। मंदिर में भगवन विष्णु और पांडवों की भी पूजा की जाती है। भगवन शिव के मुख के दर्शन विश्व में दो ही जगह मिलते है एक तो नेपाल में पशुपतिनाथ और भारत में रुद्रनाथ।
तुंगनाथ: भगवान शिव को समर्पित तृतीया केदार श्री तुंगनाथ मंदिर में शिव के भुजाओं और हृदय की पूजा करी जाती है। मंदिर से जुड़ी कई रोचक कथाएं प्रचलित हैं, कहते है, जब पांचों पांडव हिमालय प्रवास को चल दिये तो इस यात्रा के दौरान पांडवों ने महाभारत के युद्ध में हुए नरसंहार के प्रायश्चित स्वरूप भगवान शिव की पूजा-आराधना करने के लिए शिव का आह्वान किया और मंदिर की स्थापना करी। मान्यता है की केदारनाथ में धरती में समाते समय बैल के रूप में भगवान शिव की भुझाएँ यहाँ निकलीं थीं. एक और कथा है त्रेतायुग में भगवान राम ने जब रावण का वध किया तब स्वयं को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त करने के लिये उन्होंने यहां पर एक शिला पर बैठकर भगवान शिव की तपस्या की थी। मंदिर के निकट वह शिला आज भी मौजूद है और ‘चंद्रशिला’ के नाम से विख्यात है।
कल्पेश्वर: कपलेश्वर से सम्बंधित कथा है की जब भगवान शिव बैल के रूप में धरती के में अंतर्ध्यान हुए तो उनके धड़ का ऊपरी भाग काठमांडू में प्रकट हुआ, जहाँ पर ‘पशुपतिनाथ’ का मन्दिर है। शिव की भुजाएँ ‘तुंगनाथ’ में, पेट ‘मध्यमेश्वर’ में, मुख ‘रुद्रनाथ’ में तथा जटा ‘कल्पेश्वर’ में प्रकट हुए। यह चार स्थल पंचकेदार के नाम से विख्यात हैं। इन चार स्थानों सहित केदारनाथ को ‘पंचकेदार’ भी कहा जाता है। कल्पेश्वर से जुडी एक और कथा है की ऋषि दुर्वासा ने इसी स्थान पर कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की थी, तब से यह ‘कल्पेश्वर’ कहलाने लगा। इसके अतिरिक्त अन्य कथानुसार देवताओं ने राक्षसों के अत्याचारों से दुखी होकर इस स्थान पर भगवान् विष्णु की स्तुति की और भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त किया।
मध्यमहेश्वर: ये वो स्थान है, जहाँ पर पांडवों को दर्शन न देने के लिए भूमि में विलीन हुए शिव के शरीर का मध्य(नाभि) वाला भाग प्रकट हुआ था। मंदिर में नाभि के जैसा एक लिंग है, जिसके संबंध में केदारखंड पुराण में शिव पार्वती को समझाते हुए कहते हैं कि मध्यमहेश्वर शिवलिंग त्रिलोक में गुप्त रखने योग्य है, जिसके दर्शन मात्र से स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है।बालेश्वर: यह चंद राजवंश के शासकों के समय की खूबसूरत निर्माण कला का उदाहरण है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक वनवास के दौरान पांडवों के यहां पहुंचने पर उनके पिता के श्राद्ध का समय आ गया। कुंती ने मानसरोवर के जल की इच्छा प्रकट की। तब नजदीक में कहीं जल न देख धर्मराज युधिष्ठर ने अर्जुन को आदेश दिया। अर्जुन ने शिव का ध्यान कर गांडीव से बाण चला जलधारा प्रकट की। इसी जल से पांडवों ने पूर्वजों का तर्पण किया। बाण से एक नौला बना, जिसके जल में स्नान करने से पुण्य प्राप्त होता है। यह जल, भगवान शिव की कृपा के कारण मानसरोवर से प्रकट हुआ था, और इसी वजह से पांडवों ने शिव के सम्मान में बालेश्वर में शिवलिंग स्थापित किया।
ताड़केश्वर: वाल्मीकि रामायण में ताड़केश्वर धाम का वर्णन एक पावन आश्रम के रूप में मिलता है। ताड़कासुर का वध करने के पश्चात शिव ने यहां विश्राम किया था, विश्राम के समय उन्हें सूर्य के ताप से बचाने के लिये पार्वती ने देवदार के सात वृक्ष लगाये थे। आज भी ये सातों वृक्ष मन्दिर के आँगन में हैं। इसके अतिरिक्त स्कन्दपुराण में विषगंगा एवं मधुगंगा नामक दो पावन नदियों का उल्लेख मिलता है, जिनका उद्गम स्थल ताड़केश्वर मंदिर को ही बताया गया है।
बाघनाथ: इस मंदिर के बारे मे कहा जाता है कि जब सरयू जमीन से बह रही थी तो सरयू को बागेश्वर से होते हुए आगे जाना था, जब सरयू बागेश्वर पहुंची तो देखा की मार्कंडेये ऋषि तपस्या में लींन है। सरयू उन की तपस्या को भंग नहीं करना चाहती थी, इसलिए वो पीछे ही रुक गयी। इस वजह से पहाड़ डूबने लगे। शिव को जब यह पता चला तो उन्होंने सोचा अगर सरयू आगे नहीं बढ़ी तो सारा पानी यहीं जमा हो जाएगा और पूरा क्षेत्र पानी में डूब जाएगा।
मार्कंडेय ऋषि की तपस्या भंग करने के लिए, शिव ने पार्वती की सहायता ली। शिव ने पार्वती जी से कहा तुम गाय का रूप धारण कर के तपस्या में लींन मार्कंडेय ऋषि के पास जाना और मैं बाघ का रूप धारण कर के तुम्हारे पास आऊंगा, तो तुम जोर जोर से रम्भाना ताकि ऋषि की तपश्या भंग हो जाए। शिव जी के बताए अनुसार पार्वती ने ऋषि के पास जा कर गाय का रूप ले लिया और शिव भी बाघ का रूप धरके वहां पहुँच गए । ज्यूँ ही शिव बाघ के रूप मे गाय के सामने गए तो गाय ने रम्भाना शुरू कर दिया, गाय की आवाज सुनते ही ऋषि का तप भंग हो गया, ऋषि गाय को बचाने के लिए उठ खड़े हुए और गाय के पीछे भागे, इतने मे सरयू को रास्ता मिल गया और सरयू अपनी मंज़िल की ओर चल दी इस तरह शिवजी ने ऋषि को यहाँ पर बाघ के रूप मे दर्शन दिए, बाघ के रूप मे दर्शन देने की वजह से यहाँ शिव की बाघनाथ के रूप मे पूजा होती है।
बैजनाथ: बैजनाथ का मंदिर नागर शैली का मंदिर हैं और संभवतः नवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के बीच कुमाऊँ के कत्यूरी शासकों द्वारा इनका निर्माण हुआ था। इन मंदिर समूहों में मुख्य मंदिर भगवान शिव को समर्पित है जबकि अन्य सत्रह छोटे छोटे मंदिरों में केदारेश्वर, लक्ष्मीनारायण और ब्राहम्णी देवी की मूर्तियाँ प्रमुख हैं। हिंदू मान्यताओं के अनुसार यहाँ शिव और पार्वती का विवाह गरुड़ गंगा और गोमती के संगम पर हुआ था। मंदिर में पार्वती की सुंदर मूर्ति भी है।
जागेश्वर: दक्ष प्रजापति के द्वारा आयोजित यज्ञ में जब सती अग्नि में विलीन हो गयी तो सती के आत्मदाह से दुखी शिव यज्ञ की भस्म अपने पर लगाये वन की ओर निकल गए, जहाँ वे दीर्घकाल तक तपस्या कर सके। उसी वन में सप्तऋषि भी अपनी पत्नियों के साथ रहा करते थे।
एक दिन जब ऋषि पत्नियां वन में भोजन और लकड़ी आदि खोज रही थी तो, उन्होंने साधना में लींन शिव को देखा तो वे सब शिव पर मोहित हो गयी। ऋषि पत्नियां शिव पर इतना मोहित हो गयी थी की वे सब मूर्छित अवस्था में पूरी रात्रि शिव के निकट पड़ी रही। जब अपनी पत्नियों के खोज में ऋषि वहां पहुंचे तो ये सब देख सप्तऋषियों ने शिव को शाप दे डाला। परिस्तिथि को सँभालने के लिए शिव ने बालक का रूप धरा और सप्तऋषियों से कहा के तुमने बिना कुछ सोचे समझे मुझे शाप दे डाला, तुम सभी सप्तऋषि अनंतकाल तक आकाश में तारों के साथ लटके रहोगे। तब से यहाँ शिव के बाल रूप की पूजा की जाती है।
त्रिजुगीनारायण: त्रिजुगीनारायण मंदिर के बारे में कहा जाता है की ये वो जगह है जहाँ शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। पार्वती हिमालय के राजा हिमवंत की पुत्री थी। सती ने आत्मदाह के पश्चात पार्वती रूप में जन्म लिया था। शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती ने गौरी कुण्ड में जो की त्रिजुगीनारायण मंदिर के निकट मंदिर है घोर तप किया था।
त्रिजुगीनारायण क्षेत्र राजा हिमवंत की राजधानी हुआ करता था, इसी पवन भूमि पर शिव और पार्वती ने अग्नि को साक्षी मान कर सात फेरे लिए थे। भगवान विष्णु ने पार्वती के भाई की भूमिका निभाई थी तो ब्रह्मा ने पुजारी की। यहाँ मौजूद अग्निकुंड कहते है तीन युगों से जल रहा है। अग्निकुंड की राख बहुत पवित्र मानी जाती है। इस राख को लोग माथे पर लगा, अपने वैवाहिक जीवन के लिए भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त करते है।
ऐसे ही और भी असंख्य मंदिर देखने और शिव गाथाएं सुनने को मिलती है उत्तराखंड में। मन की शांति और खुद की खोज में एक बार जरूर शिव दर्शन के लिए आईयेगा “अतुल्य उत्तराखंड, शिवभूमि उत्तराखंड”
लेखक
सुधीर जुगरान
bahut bahut sadhuvaad