Uttarakhand Stories

How can we revive our regional dialects and culture which is dying slowly?

by Manoj Bhandari
Oct 27, 2015

Result of Facebook Daily Contest #26

And the winner is:

Vicky Naudiyal

Vicky Naudiyal

To save and revive our culture and traditions, we should start from our home as family is the prime institution of the society. We should educate our children right from their childhood about our history, rich tradition and culture and promote them to speak our dialects. Further, we should try to always exercise and promote our culture & tradition. for those residing outside of Uttarakhand, it is suggested that they should visit regularly to their motherland during important functions, puja etc. so that a bond and sense of love with home would always remain alive in their hearts and they will be aware of all local traditions. We should always try to communicate in our local dialects like others do. often it is being observed that our new generation people those reside in big cities and towns hesitate in speaking our dialects. it is very shameful while others do not feel shame in speaking their own language then we can and should follow the same. we should feel proud of speaking our dialects and practice them in our daily lives. by following these little things, we would definitely be able to revive our dialects and culture. Thank You!

Besides the above winners, we also found the following comments worth appreciation:

Cha N Du

इसका सीधा सा जवाब है अपनी अगली पीढ़ी को इस से रूबरू करवा कर….. अपने बच्चों को स्थानीय भाषाओँ और परम्पराओं से अवगत करवा के ही हम इन भाषाओँ परम्पराओं को बचा सकते हैं…. आज जहाँ पाश्चात्य संस्कृति अपने पाँव तेजी से पसार रही है; ऐसे समय में अभिभावकों को चाहिए कि अंग्रेजी के ज्ञान के साथ साथ वे अपने बच्चों को रीति-रिवाज; परम्पराओं; गढ़-संस्कृति आदि से भी अवगत करवाएं;….. अगर आने वाली पीढ़ी ही अपनी भाषा से प्यार नहीं करेगी, उसका उपयोग नहीं करेगी, व्यवहारिकता में नहीं लाएगी तो जल्द ही ये विलुप्ति की कगार पे नजर आएगी…. अपणी भाषा; हमुं आफि बचोण पड़लि… सबूं ते अपणु अपणु सहयोग द्योण पड़लु… जय हिन्द जय उत्तराखंड

Bharat Bhakuni

अपनी खत्म होती परम्परा भाषा को ऐसे बचा सकते है।
1-उत्त्तराखंड के स्कूल कॉलेज मे अपनी भाषा अपनी परंपरा नामक विषय चलाकर।
2-उत्तराखंड के प्रतियोगी परीक्षा मे यहाँ की भाषा परम्परा के बारे मे सवाल पूछे जाने चाहिये।

3-हर साल स्कूल कॉलेज गाँवो मे अपनी भाषा अपनी परम्परा पर विचार गोष्टी आयोजित होनी चाहिये।
4-घर परिवार सबकी पहली पाठशाला होती है तो बच्चों को अपनी भाषा मे बातचीत करनी चाहिए साथ ही उन्हें अपने संस्करति परम्परा के बारे मे बताना चाहिए।
5-उत्तराखंडी त्यौहार शादी विवाह मे अपनी भाषा मे बात करनी चाहिए साथ ही अपने इन कार्यक्रमो मे अनजान लोगो को भी अपनी भाषा और गहने कपडे के बारे मे बताना चाहिए।
6-हम सब लोगो को भी शर्म छोड़कर अपनी भाषा मे बात करनी चाहिए और देश विदेश के जिस भी कोने मे रह रहे हो वह अपने culture को अपनाना चाहिए।

Himanshu Bisht

भाषा और बिचार हमारे द्वारा ही ख़त्म होते है या उनका महत्व हम ही लोग कम कर देते है , क्योँकि हम लोग देश या विदेश में रहके वही के तौर तरीके तथा वहा की संस्कृति को अपनी संस्कृति बना लेते है और बच्चे भी उसी संस्कृति को अपना लेते है इसमे मुख्यरूप से हमारी ही गलती होती है अगर हमारी संस्कृति को बनाये रखना है तो हम लोगों को निम्न बातों का ध्यान या उनको अपने दैनिक जीवन में अपनाना चाहिए ।

(1) अपने घर में अपनी भाषा का प्रयोग जरूर करें हो सके तो जब भी आपस में मिलते है अपनी ही भाषा का प्रयोग करें |
(2) घर में पहाड़ी गाने या वहा के संस्कृति से जुडी हुए चीजे रखनी चाहिए जिससे हमें अपनी संस्कृति का अहसास हो |
(3) साल में कम से कम दो या तीन उत्तराखंडी संस्कृति प्रोग्राम का हिस्सा बनना चाहिए |
(4) अपने उत्तराँखण्ड से हर संभव जुड़ने की कोशिश करें और वहा जरूर साल में एक या दो बार घूम के आयें |
(5) सभी लोगों के साथ अच्चा ब्यवहार करना ही हमारी संस्कृति की पहचान है |
(6) सरकार द्वारा हमारी संस्कृति को बचाये रखने के लिए इस को बहुत बड़ा मंच देना चाहिए |

Nidhi Mathpal

अपनी भाषा, परम्पराओं को बचाने के लिये हमे सबसे पहले स्वयं इन से जुड़ने की आवश्यकता है, फिर अपने परिवार जनों व बच्चों को इससे जोड़ने की जरूरत है। पहाड़ों का खान पान , भाषा रीति रिवाज, गीतों, नृत्य, कला, वेश भूषा को अपना कर शहरों मे भी संयुक्त होकर रहकर सुरक्षित रखा जा सकता है। इसके अलावा मीडिया के द्वारा हम अपनी भाषा, लोक संस्कृति, परम्पराओं को जीवित रख सकते हैं। जिस तरह तमिल, मराठी, बिहारी, राजस्थानी, उड़िया, आदि भाषाओं के अपने अलग चैनल हैं जो भारत के हर राज्य में प्रसारित होते हैं ठीक उसी तरह उत्तराखंड का भी अपना अलग चैनल होना चाहिए राष्ट्रीय स्तर पर। जिसमें उत्तराखंड की भाषा के गाने, नाटकों, फिल्मों समाचारों आदि का प्रसारण हो। जिससे भारत के हर शहर मे बसे उत्तराखण्ड के लोग अपनी संस्कृति से आसानी से अवगत हो सके। इंटरनेट पर भी एक वेबसाइट शुरू की जानी चाहिये जिसमें सिर्फ उत्तराखंड के लोकगीत वीडियो के साथ – साथ औडियो मे भी उपलब्ध हो। पहाड़ी(कुमाऊँनी , गढ़वाली व जौनसारी) भाषा को लिखने में भी शामिल करना चाहिए। लेखन के क्षेत्र में भी इन भाषाओं को उपयोग में। लाना चाहिए।

अलबेला मस्त पहाडी

श्रीमान मुझे लगता है यह प्रश्न ज्यो का त्यों रहेगा । क्योकि आजकल का समाज परिवेश शिक्षा और सभ्यता इस प्रश्न के अनुकूल नहीं है । क्योकि जब से उत्तराखंड बना तब से यह प्रश्न चल रहा है पर बचत ओ नहीं कर पाए ह्रास जरुर किया है । क्या आप अपने आणि वाली पीढी को पहाड़ी भेष भूषा पहना सकते हैं क्या अपनी भाषा शिखा सकते हैं ।। आज आप किसी घर को ले लो बच्चे को ईजा की जगह मम्मी बोज्यू की जगह पापा डेड शिखाया जा रहा है । मुझे नहीं लगता की कुछ करने से कुछ होगा। जितना हम आधुनिक और विकास करेंगे हमारी संस्कृति उतनी ही खो देंगे । आप 80 के दशक से लेकर अब तक का सफ़र देख लिजिये हमने खोया ही है पाया कुछ नहीं है । बहुत से बचाने के परयास हो सकते हैं मगर पालन नहीं कर सकते । महोदय आप हमारे संगीत को देख लो पहाड़ी शब्दों से ज्यादा हिंदी इंग्लिश का इस्तेमाल होता है ढोल दमाऊ हुडका का उपयोग कम होता है ये नहीं की इसमें हमारी संस्कृति नहीं झलकती कहने का मतलब है हमारी परम्पराओं का ह्रास हो रहा है आधुनिक और परिवर्तन जरुरी । जिस तरह से देश पर पाश्चात्य हावी है उसी तरह हमारी लोक परम्पराओ पर भी ।

Gopu Bisht

मारी लोक भाषाएँ और परम्पराएँ सिर्फ तभी बच सकती हैं जब हर कोई पहाड़ी भले ही वो पहाड़ गाँव में हो या परदेश में अपनी बोली-भाषा का प्रयोग और लोक परम्पराओं का सम्मान करे। आपस में ज्यादा से ज्यादा अपनी लोक बोली-भाषा में बातें करनी चाहिये और पहाड़ गाँव की सभी लोक पर्वों, रीति-रिवाजों को मनाना चाहिये भले ही आप गाँव में हो या गाँव से दूर कहीं परदेश में। अगर केवल घर का माहौल ही भी लोक संस्कृति पर आधारित होगा तो खुद ही बच जाएंगी। आने वाली पीढ़ी को जानकारी होगी तो तभी तो बच पाएगी हमारी बोली-भाषा और परम्पराएँ।
हमें यह सोचना चाहिये कि गाँव से दूर जाकर शहरों में बच्चों को बाहर का जो माहौल मिलता है उस से तो स्वतः ही वो दुनिया के साथ कदम से कदम मिलालेंगे लेकिन घर में हमें वो माहौल तैयार करना होगा जिस से हमारी भाषा और लोक परंपरा बची रहे। बस शायद यही करने से भी हमारी ये लोक भाषा और परंपराएं बची रह सकती हैं हमारी आने वाली पीढ़ी के लिये।
और एक बात…. आज ज़्यादातर लोग सोश्ल साइट के माधयम से आपस में जुड़ चुके हैं भले ही वो गाँव में रहते हों या शहरों में तो खुद ही अगर आपस में अपनी लोकल भाषा बोली में वार्तालाप करें तो इससे भी काफी हद तक हमें अपनी लोकल भाषा को बचाने का मौका मिलेगा….और पर्व-त्योहारों और रस्मों-रिवाजों के बारे में भी समय समय पर जानकारी मिलने से काफी बदलाव आ सकता है। धन्यवाद !

Brijesh Bohra

स्कूल में उत्तराखंड की लोकल भाषाओ को एक अनिवार्य विषय के रूप में पडान चाहिए। तथा हमें अपनी भाषा को बोलने और सीखने में शर्मना नहीं चाहिये। जितना हम अपनी भाषा का प्रयोग करेंगे उतनी ही हमारी स्थानीय भाषाए और परम्पराएँ भविष्य के लिए सुरक्षित रहेंगी और हमारी आने वाली पीडी को भी इन चीजो का लाभ मिल सकेगा।

Sheela Gosain

Shehron me jo ghadwal sabha ya anya sabha sasthayen hain un me apne bujurgon ko samil karke apni sanskriti parmprawon ko jeevit rakha ja sakta hai, jese shadi me gaye jane wale mangal geet ki team tyar karyen or har gharwali shadi me unke dwara geet mangal snan, feron aadi par gaye jayen. Jis tarh ladyes sangeet par partiyan bulaaee jati hain or unhe pay kiya jata hai wase hi inko bi shadi me bulaya jaye or unko mehntana bi diya jaye. Dance floor par kuch gharwali geet dhamakedar dance partiyan hon to shadi ki ronak bi badhegi or sanskriti bi jinda rahegi.kuch tyohar ek hi jagah par gharwali sanskriti se manaye jayen to hum kafi had tak apne culture ko badhawa de sakte hain .

Gaurav Chamoli

Sabse phle toh bhale hi hum yhn cities m reh rhe hain…humein apni families k saath jb bhi mauka mile apne pahadon m ghumne zaroor jaana chahiye..apne bacchon ko pahadon ki mithaas se rubaru hone dena chahiye…!!hamari state govt. ko whn ache ache cultural festivals krane chahiye..!!yhn cities m bhi garhwal ko bachaane k liye festivals aur activities plan honi chahiye…aur sbse achi baat mere hisaab se jaise Punjabis ka bhangra night hota h, gujratis ka dandiya night..humari bhi dhol damau night honi chahiye..!!

Aur jhn tk baat h bhasha bchane ki..phle toh poore uttarakhand m hr city m kam se kam 1 ya 2 libraries ausi honi chahiye jhn garhwali, kumaoni aur saari uttarakhandi bhashaon, ritiyon, humare dada dadiyon k puraane kargar nuskhe, humari dishes aur bhot kuch….in sb se judi baaton pr kitaabein ho..!!
Humein apne uttarakhandi lok geet bhi sun ne chahiye…aur ji hn..atleast 1 news channel garhwali bhasha m bhi prasaarit hona chahiye…aur ho ske toh radio k maadhyam se bhi 1-2 channel aise hone chahiye jo pahadon m chl thi baaton, humare lok geet, aur humare uttarakhanfi samaj ko ek jut rkhne pr kendrit ho…!!
Aur yeh toh bhot hi achi baat h ki apne pahad bhi ab bdhti technology se achoote nhi h..isliye digital media ki jitni ho ske utni madad leni chahiye..yeh humare prayaason ki raftaar doguni kr skta h..!!

Raksha Rani

 

In my opinion, there are many ways:
1. Garwali should be taught in schools of Uttarakhand so that new generation carry it forward
2. There should be a day in UK schools once in a month or weekly when Sanskritic karya krum is celebrated to keep it up.
3. There should be more t.v channels to aware new generation for Garwali language and Sanskriti
4. There must be programs in GarHwali language and sanskriti on the national level to aware Garhwalis all over India.
5. More Garhwali, Kumaoni and Jaunsari films should be made to show Uttarakhand and its sanskriti even tax-free.

Prabhakar Bhatt

आधुनिकता की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारी संस्कृति विज्ञान जितनी प्रगति नहीं कर पाई है |आखिर उस घर को कैसे बचाया जा सकता हो जहाँ कोई रहना ही नहीं चाहता वो एक दिन खंडर बनेगा ही. लोग गाओं छोड़ देते हैं शहर चले जाते हैं और फिर वापसी की सम्भावना काम ही रहती है | उत्तराखंड की संस्कृति को बचाने के लिए हमें ग्रामीण स्तर पर इसके लिए पहल करनी होगी| हमें गावं में अपनी संस्कृति को अन्य से श्रेष्ट बनाने के liye पंजाब एवम गुजरात जैसे खुशहाल राज्यों से सीखना होगा | यहाँ के लोग पलायन तो करते हैं पर अपनी संस्कृति से जुड़े रहते हैं| हम कुछ कदम उठा सकते हैं जो निम्न है :-

१.बच्चे किसी भी समाज का भविस्य हैं लेकिन हम लोग बचो को हिंदी या इंग्लिश बोलने पर ही जोर देते हैं उन्हें अपने संस्कृति से जोड़ने वाले कार्यक्रम, गीत- संगीत, चलचित्र और पुस्तकों से दूर करते हैं | अधिकांश जीवन शहर में ही व्यतीत करते हैं जो की एक अभिशाप है |

२. गीत संगीत और चलचित्र एक ऐसा माध्यम है जिसको कोई भी, कहीं भी, कभी भी देख सकता है और ये माधयम भी लोगों को अपने घर से जोड़े रखता है | हमें अपने विषय को बबली तेरु मोबाइल और लबरा चोरी से बदलकर ठंडो रे ठंडो की तरफ वापस मोड़ना होगा | भद्दे विषय भी संस्कृति के लिए जहर है |

३. मीडिया : लोकल भाषा के समाचार पत्र, न्यूज़ चैनल एवं सोशल मीडिया में अपनी सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे लेख , संगीत एवम स्थानीय परंपरा का प्रचार| जागर, मंडान और सांस्कृतिक मेलों पर जोर देना जो विलुप्ति के कगार पर हैं|

अगर हम इन बातों बातों पर जोर देते एक दिन ऐसा जरूर आएगा की उत्तराखंड की बोली सबकी जुबान पर होगी| जय उत्तराखंड |

Yogesh Pandey

India is an extraordinary country with different cultures, languages and dialects. However it is losing its diversity due to the following reasons: 1. Globalization and cultural annexation lead to the vanishing of our regional dialects and culture. Though it enhances communication and development between the two cultures but it put a danger to the identity of country’s small cultural groups.

2. Globalization leads to economic development which negates the cultural & dialects diversity.

3. Migration is one of the root causes of the disappearance of our regional dialects and culture. To save our rich cultural and dialects heritage we must work fast and in positive direction.

4. The starting point must be the education system that needs some modification. In primary education, regional school boards must introduce courses that deal with regional dialects. English is quite prevalent in our education system. I agree that it is a language of modern culture in our country but regional dialects should be given more priority.In co-curricular activities, the students must be taught about their rich culture.

4. In jobs also, State Government must make it mandatory or preference should be given to people who speaks their regional dialects.

5. We cannot stop the migration as human wants a better standard of life.But people of the same region can form small groups that pass their culture and dialects to the new generation.

6. In India, many people feel shy in speaking their own regional dialect. This is quite prevalent in English speaking areas. Creating awareness is the only key to get rid of this fear and shyness. We should feel proud of our culture. The people and Government must work together to save and revive our culture and dialects.

Gaurav Bhushan Hatwal

यदि आप सच में अपनी इस संस्कृति को बचाना चाहते है तो सबसे पहले ऐसा करे-

जो लोग आज भी उत्तराखंड के गाँवों में है, उन्हें अपने बुजुर्गों के साथ बैठना चाहिए और उनके अनुभवों को जानना चाहिए। उन्हें यकीनन इस बात का एहसास होगा कि आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में व
ों क्या भूल चुके है।
और जो लोग आज उत्तराखंड के शहरों में है या अन्यत्र कही बाहर है। उन्हें बस अपने परिवारों और बच्चों को उत्तराखण्ड में उनके पैत्रक निवास तक घुमाने भर के लिए ले आना चाहिए। देवभूमि की ठण्डी हवायें ही काफी है उन्हें ये एहसास दिलाने के लिये कि वो क्या पीछे छोड़ चुके है।
और रही बात उनके बच्चों और परिवारों की, तो मेरे पावन उत्तराखंड के पहाड़ो की वो मनोरम झाँकियाँ और ढ़ोल-दमाऊ की थाप पर बसे यहाँ के गीतों पर थिरकते कदम ही काफी है, उन नव-आगंतुको को यह बताने के लिए कि अपनी जड़ों से जुड़ने का एहसास कितना सुहावना होता है।

किताबों में उत्तराखंड को अनिवार्य विषय में पढ़ाने से सिर्फ बच्चो का बोझ बढेगा ज्ञान नहीं। और आप क्योकर अपने आप में बदलाव लायेंगे। जबकि आप सब भूल चुके हो और जब आप को यहाँ से छूटे हुए एक युग बीत गया हो। ये सब द्वितीयक उपाय है संस्कृति को बचाने के। जब तक आप लोग अपने छोड़े हुए घर- गाँव की बर्बाद हुई जगहे देखेंगे ही नहीं तब तक आप कैसे जानोगे कि आपने बाहर जाकर क्या खोया है।पहले रुचि तो पैदा करें अपनी संस्कृति के प्रति लगाव तो फिर अपनेआप हो जायेगा।

इसमें उत्तराखंड के त्यौहार और समारोह हमारी बहुत कुछ मदद कर सकते है। इन अवसरों को पहले से भी ज्यादा उल्लास के साथ मनाएं और इनमे भाग लेने हेतु उन सभी बिछड़ो को जरूर बुलाये जो बहुत समय से कही खो चुके है।

वे बस एक बार यहाँ आ भर जाएँ बाकि तो हमारे गढ़देश की फिजाये ही काफी है। भटके हुओं को अपनी जगह पर लाने के लिए और अपनी संस्कृति को बचाने के लिए।

एक बार इन शाखों को जड़ का पता भर बता दे। ये डालें जान लगा देगी इस पेड़ को दोबारा हरा बनाने में।।

Manoj Bhandari


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